HISTORY IN VINDHYA PRADESH
#VINDHYA PRADESH HISTORY IN HINDI #विंध्य प्रदेश का इतिहास के बारे में जानकारी
क्या आप विंध्य प्रदेश (Vindhya pradesh) / बघेलखण्ड (Bghelkhand), के बारे में उसका इतिहास (History), क्षेत्रफल, जनसख्या, कला संस्कृति , भौगोलिक स्थित, बोली भाषा , जीवन शैली, लोकगीत, साहित्य, परम्परा, लोक नाटक, लोक कथा, विंध्य प्रदेश के लीडर ,
विंध्य प्रदेश के शहीद और शहादत, विंध्य प्रदेश का पतन (समापन) के बारे में जानना चाहते है ?
विंध्य प्रदेश का शुभारम्भ या उदय :-
4 अप्रैल 1948 को विंध्यप्रदेश का विधिवत उद्घाटन पं.नेहरू के प्रतिनिधि तत्कालीन केंद्रीय लोकनिर्माण मंत्री एन बी गाडगिल ने किया..।
विंध्य प्रदेश का क्षेत्रफल, जनसख्या
विंध्य प्रदेश में आठ जिले- रीवा (Rewa), सीधी (Sidhi), सतना (Satna), शहडोल,पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया थे..।
क्षेत्रफल : 24598, वर्गमील, जनसंख्या : 24330734, थी
14 अप्रैल1949 को विंध्य प्रदेश का मंत्रिपरिषद भंगकर इसे केंद्र शासित बना दिया गया। इसके विलीनीकरण का यह पहला आघात था।
समाजवादी युवातुर्क जगदीश चंद्र जोशी (Jagdeesh Chandra Joshi), यमुना प्रसाद शास्त्री (Yamuna Prasad Shastri), श्रीनिवास तिवारी (Shriniwas Tiwari) के नेतृत्व में विंध्य प्रदेश बचाने का आंदोलन चला।
नोट : विंध्य प्रदेश का इतिहास से संबंधित न्यूज़ और वीडियो देखने के लिए निचे दिए गए लिंक पर क्लिक करे
विंध्य प्रदेश का उदय और अस्त
पार्ट -1 , पार्ट -2 , पार्ट -3
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विंध्य प्रदेश का उदय और अस्त
पार्ट -1 , पार्ट -2 , पार्ट -3
विंध्य प्रदेश के शहीद और शहादत:-
-2 जनवरी 1950 को आंदोलनकारियों पर सरकार ने गोली चलवा दी, मो.अजीज, गंगा और चिंताली शहीद हो गए।
विंध्य प्रदेश का विलयन रुक गया, दिल्ली की सरकार झुक गई, विंध्य प्रदेश बच गया।
-2 अप्रैल 1952 को विंध्य प्रदेश की विधानसभा के लिए पहला निर्वाचन हुआ।
प्रथम आम चुनाव में विंध्यप्रदेश विधानसभा के लिए 60 सदस्यों और लोकसभा के लिए 6 सदस्यों का निर्वाचन हुआ। राज्यसभा में विंध्यप्रदेश को 4 स्थान आवंटित किए गए।
पं.शंभूनाथ शुक्ल(शहडोल) मुख्यमंत्री, शिवानंद जी(सतना) विधानसभा अध्यक्ष, श्यामसुंदर दास(दतिया) विधानसभा उपाध्यक्ष व चंद्रप्रताप तिवारी (सीधी) नेता प्रतिपक्ष बने।
-गाँवों की संख्या 12776, ग्रामपंचायतें 1806, न्याय पंचायतें 585 थीं।
- 11 नगरपालिकाएं तथा एक नोटीफाइड एरिया कमेटी थी। इनके नाम इस प्रकार हैं- रीवा, सतना, नौगांव, पन्ना, दतिया, टीकमगढ़, मैहर, शहडोल, उमरिया, छतरपुर, महाराजपुर और सीधी(नोटीफाइड एरिया कमेटी)।
- 1956 में राज्यपुनर्गठन आयोग बना..। आयोग का रीवा में पुरजोर विरोध हुआ फिर भी कैबिनेट सेकेट्री बीपी मेनन साहब ने विंध्यप्रदेश के विलय की सिफारिश कर दी।
- विधानसभा के भीतर हुए तीखे विरोध, तोड़फोड़ के बावजूद बहुमतवाली किंतु दिल्ली नेतृत्व के आगे मजबूर व असहाय विंध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार ने इस प्रदेश की अकालमृत्यु पर अपनी मुहर ठोक दी..। 1 नवंबर 1956 को मध्यप्रदेश अस्तित्व में आया।
-10 मार्च 2000 के दिन मध्यप्रदेश की विधानसभा में कांग्रेस विधायक शिवमोहन सिंह(अमरपाटन) ने विंध्यप्रदेश के पुनरोदय का अशासकीय संकल्प रखा जिसका समर्थन भाजपा विधायक रमाकान्त तिवारी(त्योंथर) ने किया।
- विंध्यप्रदेश के पुनरोदय का यह अशासकीय संकल्प सर्वसम्मति से पास हुआ, विधानसभाध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी ने अग्रिम कार्रवाही के लिए लोकसभा भेज दिया।
-27 मार्च 2000 को भोपाल में बघेलखण्ड व बुंदेलखंड के विधायकों, पूर्वविधायकों ने अभूतपूर्व एकजुटता का परिचय देते हुए विंध्यप्रदेश के पुनरोदय के प्रति संकल्प व्यक्त किया
विंध्य प्रदेश के लीडर :-
श्रीनिवास तिवारी की अध्यक्षता व जयराम शुक्ल के संयोजन में हुए इस अधिवेशन में..बुंदेलखंड के गांधी पूर्व सांसद लक्ष्मीनारायण नायक, विधायक मगनलाल गोइल (टीकमगढ़) विधायक उमेश शुक्ल (छतरपुर), पूर्वमंत्री कैप्टन जयपाल सिंह (पन्ना) पूर्वमंत्री लालता प्रसाद खरे (सतना), मंत्री इंद्रजीत कुमार (सीधी), विधायक राजेंद्र भारती (दतिया), पूर्व विधायक केशरी चौधरी (दतिया), विधायक शबनम मौसी (शहडोल), सांसद सुंदरलाल तिवारी (रीवा), विधायक रामप्रताप सिंह (सतना), मंत्री सईद अहमद ( सतना), बिश्वंभर दयाल अग्रवाल (भास्कर समूह), विधायक पंजाब सिंह (सीधी), मंत्री राजमणि पटेल (रीवा) विधायक शिवमोहन सिंह ( रीवा), पूर्व विधायक विजय नारायण राय (सतना) आदि हजारों जनप्रतिनिधियों ने अधिवेशन में विंध्य प्रदेश के पुनरोदय के प्रति अपना संकल्प दोहराया।
- 21 जुलाई 2000 को लोकसभा में तत्कालीन सांसद सुंदरलाल तिवारी के एक प्रश्न के जवाब में गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने बताया था कि विंध्य प्रदेश की संभावनाओं का परीक्षण किया जा रहा है।
- 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ समेत तीन नए राज्य (उत्तराखंड, झारखण्ड) अस्तित्व में आ गए लेकिन पिछले उन्नीस साल से लोकसभा विंध्यप्रदेश की संभावनाओं के परीक्षण में ही जुटी है।
विंध्य प्रदेश का पुनरोदय पुण्यस्मरणीय जगदीश जोशी, यमुना प्रसाद शास्त्री, श्री निवास तिवारी का सपना था। ये तीनों अपने सीने में इस सपने को जज्ब किए इस लोक से प्रस्थान कर गए।
-4 अप्रैल 2000 को श्रीयुत श्रीनिवास तिवारी की इस हुंकार को याद रखें..
"गंगा की तरंगों को अब कोई रोक नहीं सकता, विंध्यप्रदेश हमारा हक है और उसे लेके रहेंगे"
विंध्य प्रदेश का पतन (समापन) या विलय होना
हर साल 4 अप्रैल की तारीख मेरे जैसे लाखों विंध्यवासियों को हूक देकर जाती है। 1948 को आज के दिन विंध्यप्रदेश अस्तित्व में आया था। भौगोलिक तौर पर भले ही वह विलीन हो चुका है लेकिन वैचारिक तौर पर वह हमारे दिल-ओ-दिमाग को लगातार मथ रहा है। रीवा से लेकर भोपाल, इंदौर, जबलपुर में विंध्यप्रदेश के पुनरोदय की ललक रखने वाले कई संगठन सक्रिय है। महत्व की बात यह कि यहां के युवाओं और छात्रों के ह्रदय में विंध्य प्रदेश को लेकर आग धधकने लगी है।
जो इतिहास से सबक नहीं लेता वह बेहतर भविष्य को लेकर सतर्क नहीं रह सकता इसलिए विंध्यप्रदेश का आदि और अंत जानना जरूरी है।
विंध्यप्रदेश की हत्याकथा में जब भी पं.नेहरू की भूमिका का कोई भी जिक्र होता है तो उन्हें भारतीय लोकतंत्र का आदि देवता मानने वाले लोग बिना जाने समझे टूट पड़ते हैं। कुछ महीने पहले ऐसे ही किसी संदर्भ में यह लिख दिया कि शैशव काल में ही एक प्रदेश की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि उसके सबसे पिछड़े क्षेत्र ने पंडित नेहरू और उनकी काँग्रेस पार्टी को पूरी तरह खारिज कर दिया था।
यह मसला अत्यंत पिछड़े सीधी (सिंगरौली सम्मिलित) जिले का था, जहाँ की जनता ने देश के पहले आम चुनाव यानी 1952 में पंडित नेहरू के तिलस्म को खारिज करते हुए उनकी महान कांग्रेस पार्टी को डस्टबिन में डाल दिया। सीधी की सभी विधानसभा सीटों और लोकसभा सीट में काँग्रेस सोशलिस्टों से पिट गई थी।
यह संदर्भ लिखे जाने के बाद बहुत प्रतिक्रियाएं आईं रही हैं। कोई संदर्भ स्त्रोत जानना चाहता था तो कुछ लाँछन, तंज और गाली की भाषा तक उतर गए। खैर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भोगने का सभी को बराबर का अधिकार है..इस पर कुछ नहीं कहना..।
कहते हैं एक तिनगी भी तोप दागने के लिए पर्याप्त होती है। विंध्य प्रदेश के पुनरोदय को लेकर विंध्य से भोपाल-दिल्ली तक कई छोटे-छोटे समूह सक्रिय हैं। वे सभी यह सपना सजोये बैठे हैं कि उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड, तेलंगाना जैसे छोटे राज्यों के उदय के बाद विंध्य प्रदेश के पुनरोदय का रास्ता स्वाभाविक रूप से खुल जाता है। विंध्य प्रदेश का जब विलोपन हुआ था तब कहा गया था कि छोटे राज्य सर्वाइव नहीं कर सकते। यह त्थोरी अब उलट गई है।
उदित हुए नए राज्य कभी अस्तित्व में भी नहीं थे जबकि विंध्य प्रदेश एक भरापूरा प्रदेश रहा है पूरे आठ साल। विंध्य की अलख जगाने वाले ये बेचारे वीरव्रती इस क्षेत्र के सभी अलंबरदार नेताओं से गुहार-जुहार लगा-लगाके थक चुके हैं, नेताओं को फिलहाल यह मुद्दा वोट मटेरियल नहीं लगता।
अपन लिख सकते हैं सो हर साल इस दिन अपने उस अबोध प्रदेश की हत्याकथा को याद कर शोक मना लेते हैं। हर साल इस दिन अपनी माटी के स्वाभिमान से जुड़ी टीसने वाली बात अवचेतन से मावाद की तरह फूटकर रिसने लगती है। हर साल ही आक्रोश शब्दों में जाहिर होता हुआ व्यक्त हो ही जाता है।
यह आक्रोश हर उस आहत विंध्यवासी का है जो अक्सर यह कल्पना करता है कि आज विन्ध प्रदेश होता तो तरक्की के किस मुकाम पर खड़ा रहता। क्या अपने रीवा की हैसियत भी भोपाल, लखनऊ, पटना, चंडीगढ जैसे नहीं होती..!
विंध्यप्रदेश अपने संसाधनों के बल पर देश के श्रेष्ठ राज्यों में से एक होता...लेकिन उसे आठ साल के शैशवकाल में सजा-ए-मौत दे दी गई। यह एक बार नहीं हजार बार कहूंगा, कहता रहूँगा। क्योंकि नई पीढ़ी को इस त्रासदी का सच जानना जरूरी है।
जिनको इतिहास से बवास्ता होना है वे पहले वीपी मेनन की पुस्तक unification of indian states पढ़ ले तो पता चलेगा कि कितनी मशक्कत के बाद विंध्यप्रदेश बना था। जान लें, मेनन साहब सरदार पटेल के सचिव थे।
सन् 48 से 52 तक विंध्यप्रदेश को बचाए रखने की लड़ाई भी जान लें। लाठी-गोली खाएंगे धारा सभा बनाएंगे.. के नारे के साथ आंदोलन हुआ और अजीज, गंगा, चिंताली शहीद हुए। ये मरने वाले कोई भी पालटीशियन नहीं सरल-सहज-विंध्यवासी थे।
तीन मासूमों का लहू रंग लाया और केंद्र शासित होने की बजाय विंध्यप्रदेश एक पूर्णराज्य के तौर पर बच गया। सन् 52 के चुनाव में देश में चल रही नेहरू की प्रचंड आँधी यहां आकर बवंडर मात्र रह गई। विंध्य से उस समय नेहरू को चुनौती दे रहे डा. लोहिया के युवातुर्क चेले बड़ी संख्या में जीतकर विधानसभा पहुंचे।
सीधी जैसे अत्यंत पिछड़े जिले में लोकसभा और सभी विधानसभा सीटों में सोशलिस्ट(एक में जनसंघ) जीते। पं.नेहरू जी की प्रतिष्ठा के लिए तब यह बड़ा आघात माना गया। बीबीसी, रायटर, एपी जैसे न्यूजएजेंसियों ने दुनिया भर में ये खबरें प्रसारित कीं कि भारत के एक अत्यंन्त पिछड़े इलाके के मतदाताओं ने नेहरू और उनकी काँग्रेस को खारिज कर दिया। तब रीवा में प्रायः सभी बड़े अखबारों व एजेंसियों के पूर्णकालिक दफ्तर थे।
नेहरू के खिलाफ यदि कहीं से खबरें जनरेट होतीं तो वह रीवा था क्योंकि तब वह जेपी, लोहिया, नरेन्द्र देव, कृपलानी का राजनीतिक शिविर बन चुका था। जो इतिहास जानते हैं उन्हें बताने की जरूरत नहीं कि यही चारों उस वक्त नेहरू के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी थे। कांग्रेस में भी जबतक थे इन्हें नेहरू जी के समकक्ष ही माना जाता था।
सन् 52 से लेकर 57 के बीच यहां समाजवादी आंदोलन पूरे उफान पर था। जन-जन की जुबान पर समाजवाद चढ़ा हुआ था। विधानसभा में सोपा के मेधावी विधायकों के आगे सत्तापक्ष की बोलती बंद थी। इसी विधानसभा में श्रीनिवास तिवारी का जमींदारी उन्मूलन के खिलाफ ऐतिहासिक सात घंटे का भाषण हुआ था जिसने लोकसभा में कृष्ण मेनन के भाषण के रेकार्ड की बराबरी की थी। भारतीय संसदीय इतिहास में यहीं पहली बार ..आफिस आफ प्राफिट.. के सवाल पर बहस हुई। समाजवादी युवा तुर्कों ने सत्ता की धुर्रियां बिखेर दी।
57 नजदीक आने के साथ ही योजना बनी कि विंध्यप्रदेश का विलय कर दिया जाए। यह रणनीति नेहरूजी की प्रतिष्ठा को ध्यान पर रखकर बनी कि न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
56 में state reorganization commission गठित हुआ। दावे आपत्ति मगाए गए। विंध्यप्रदेश के योजना अधिकारी गोपाल प्रसाद खरे ने प्रदेश की आर्थिक क्षमता के आँकड़े तैयार किए। साक्षरता, प्राकृतिक संसाधनों पर भी एक रिपोर्ट तैयार कर आयोग के सामने यह साबित करने की कोशिश की गई कि विंध्यप्रदेश की क्षमता शेष मध्यप्रदेश से बेहतर है। यह रिपोर्ट विद्यानिवास मिश्र संपादित पत्रिका विंध्यभूमि में भी छपी। विद्यानिवास जी तब विंध्यप्रदेश के सूचनाधिकारी थे।
विडम्बना देखिए, समूचे विंध्यप्रदेश का प्रशासन, उसके अधिकारी यह चाहते थे कि इस प्रदेश की अकाल मौत न हो। इस बात की तस्दीक म.प्र. के मुख्य सचिव व बाद में भोपाल सांसद रहे सुशील चंद्र वर्मा ने हिंदुस्तान टाइम्स में छपे एक लेख के जरिये की। श्री वर्मा विंध्यप्रदेश में प्रोबेशनरी अधिकारी रह चुके थे।
जब छत्तीसगढ़ बना तो उनकी तीखी प्रतिक्रिया थी- यदि कोई नया राज्य बनता है तो पहला हक विंध्यप्रदेश का है। जबकि तब श्री वर्मा भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में से एक थे, और छग अटलजी की सरपरस्ती में बना।
चूंकि नेहरूजी की प्रतिष्ठा कायम करने के लिए बाँसुरी के सर्वनाश हेतु बाँस को ही जड़ से उखाड़ने का फैसला लिया जा चुका था इसलिए न तो सरकार की आर्थिक क्षमता का सर्वेक्षण देखा गया और न ही विंध्यवासियों की आवाज़ सुनी गई। तत्कालीन काँग्रेसियों के सामने तो खैर नेहरू के आगे नतमस्तक रहने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था।
विधानसभा में सोपा के विधायकों ने मोर्चा खोला। सभी नेताओं के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट थे फिर भी ये सभी छुपते छुपाते विधानसभा पहुंचे मर्जर के खिलाफ श्रीनिवास तिवारी जी ने फिर छह घंटे का भाषण दिया। बाहर पुलिस हथकड़ी लिए खड़ी थी।
विधानसभा सभा को छात्रों ने चारों ओर से घेर लिया। रामदयाल शुक्ल(जो बाद में हाईकोर्ट के जस्टिस बने) और ऋषभदेव सिंह(जो संयुक्त कलेक्टर पद से रिटायर हुए) के नेतृत्व में छात्रों ने विधानसभा के फाटक तोड़ दिए व सदन में घुसकर विंध्यप्रदेश के विलय का समर्थन करने वाले सभी मंत्री- विधायकों की जमकर धुनाई की। मुख्यमंत्री व स्पीकर ही बमुश्किल बच पाए।
सभी छात्रों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। यह आंदोलन भी कुचल दिया गया। गैर कांग्रेस सरकारों पर पंडित नेहरू का नजला गिरना शुरू हो चुका था। इसी क्रम में बाद में केरल की निर्वाचित साम्यवादी सरकार को बर्खास्त किया गया। लाठी और संगीनों के साए में विंध्यप्रदेश को सजा-ए-मौत सुनाई जा चुकी थी।
अब भला बताइए एक मासूम राज्य के खून के छीटे से किसके कुरते रंगे हुए हैं..? इतिहास के क्रूर सच को सुनने की भी आदत डालनी होगी।
मैं भी उन वीरव्रतियों के संकल्प के साथ हूँ जो आज भी यह सपना सँजोए बैठे हैं कि एक दिन यह अँधेरा छँटेगा, सुबह होगी और प्राची से विंध्यप्रदेश का पुनरोदय होकर रहेगा।
वरिष्ठ पत्रकार श्री जयराम शुक्ल. , संपर्क..8225812813 ,
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